Friday, November 7, 2008

Tuesday, October 28, 2008

पारिजात

पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्‍ली विश्विद्यालय

पाक्षिक अंक: 2 वर्ष: 1
संपादक-दीपिका शर्मा सहसंपादक-जतिन,ललित परामर्श-डॉ0 राम प्रकाश द्विवेदी

15-31 अक्टूबर,2008 नर्इ दिल्‍ली

संपादकीय
अब तक तो आप हमारे पारिजात से भली भॉंति परि‍चित हो गए हैं। चलिए पिछली बार तो आपने इस ज्ञान के समुद्र में गोते लगाए थे, और अब बारी हैं इस ज्ञान के समुद्र में तैरने की अर्थात कुछ गहराई में जाने की। इस बार आपको हमारी इस पत्रिका में पिछली बार से कुछ अच्‍छा पढने को मिलेगा। ऐसा नही कि हमारे पिछले संस्‍करण में कुछ कमी थी, पर हम लगातार प्रयास करते रहेंगे कि हम हर बार आपको बेहतर से बेहतरीन करके दिखाए।
इन पंद्रह दिनों के जो ज्‍वलंत विषय हैं हमारा प्रयास रहेगा कि हम उस पर प्रकाश डाले। सविता के लेख लहरों में डूबी जिंदगी से आपको बिहार की बाढ की वास्‍तविकता का ज्ञान होगा। जन्‍माष्‍टमी पर्व के महत्‍त्‍व के बारे में आप जानेंगे भारती के लेख द्वारा। इस बार अभिषेक के लेख का मुद्दा रहेगा जाना चौदह दशकों के गआहों का, और ललित लिख रहे हैं मँहगाई के विषय पर। इन सबके साथ आप पढ सकते हैं जतिन की स्‍वरचित कविता जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं? यहॉं हर किसी की कृति के बारे में बता पाना संभव नहीं हैं। हॉं पर यह जरूर कहा जा सकता हैं कि हर विद्यार्थी ने अपनी ओर से श्रेष्‍ठ लिखने की कोशिश की हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि आप इस पत्रिका को पढकर हमारा उत्‍साह वर्धन करें।
यदि आपके कुछ सुझाव या शिकायतें हो तो आप हमे अवश्‍य सूचित करें। आपके सुझाव ही नही वरन् शिकायतो का भी हमे इंतजार रहेगा। आइए नयी बातों और विचारों के साथ पारिजात के एक और अंक में शिरकत करने के लिए।

दीपिका शर्मा
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

जन्‍माष्‍टमी
जन्‍माष्‍टमी का पर्व हिंदुओं का एक महत्‍वपूर्ण पर्व हैं। यह पर्व भगवान श्रीकृष्‍ण के जन्‍मदिवस के रूप में भादों मास(जुलाई- अगस्‍त) के कृष्‍णपक्ष को अष्‍टमी के दिन मनाया जाता हैं। उन दिनों ब्रज में अत्‍याचारी कंस का राज्‍य था। उसको ज्‍योतिषियों ने बताया था कि उसकी मृत्‍यु उसके भांजे कृष्‍ण के हाथों होगी। अत: उसने अपनी बहन देवकी व बहनोई वासुदेव को मथुरा के कारागार में डाल दिया। वहीं श्रीकृष्‍ण का जन्‍म अर्धरात्रि को हुआ। उनका बचपन नंद बाबा के यहॉं गोकुल में बीता। कृष्‍ण हमेशा से युवाओं के दिल के करीब रहे हैं। आज भी दूसरे भगवानों की अपेक्षा कृष्‍ण युवाओं को अधिक लुभाते हैं।
कृष्‍ण जी ने अत्‍याचारी कंस का वध कर महाराजा उग्रसेन को गद्दी में बिठाया। पीडित और सतृप्‍त जनता को सुख शांति प्रदान की। श्रीकृष्‍ण महान तत्‍वेता, दार्शनिक निपुन राजनितिज्ञ एवं मानवता के रक्षक थे। उनका जीवन दर्शन कर्म प्रधान हैं जो श्रीमद्भागवत गीता में संग्रहित हैं। जन्‍माष्‍टमी के दिन भर व्रत रखते हैं। शाम को पूजा पाठ करके, मंदिरो में श्रीकृष्‍ण के दर्शन करके रात्रि के ठीक बारह बजे उनके जन्‍म के पश्‍चात भोजन करते हैं।
कृष्‍ण की उपासना के लिए मंदिरों में उमडी युवाओं की भीड कृष्‍ण के प्रति उनके लगाव को दर्शाता हैं। युवाओं का मानना हैं कि कृष्‍ण की ओर उनके झुकाव की सबसे बडी वजह कृष्‍ण का जीवन को लेकर प्रैकटिकल होना हैं। कर्म की प्रधानता और फल की चिंता ना करने का कृष्‍ण का उपदेश युवाओं को शांति देता हैं, जिसके बल पर वो तमाम असफलताओं से उबरने की प्रेरणा पाता हैं।
युवाओं को जमीन से जुडने का कृष्‍ण का उपदेश भी खासा प्रभावित करता हैं। इस दिन लोग श्रीकृष्‍ण के जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाते हैं। इसी कारण जन्‍माष्‍टमी का ब‍हुत धार्मिक महत्‍व हैं।
भारती
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


लहरों में डूबी जिंदगी
बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी ने आखिरकार अपने विकराल रूप के दर्शन हमे करा ही दिये हैं। कहते हैं जब इंसान अपने राह से भटक जाता हैं तो उसका भविष्‍य बर्बादि की ओर अग्रसर हो जाता हैं, और इस पंक्ति को साक्षात किया कोसी नदी द्वारा रास्‍ता बदले जाने के बाद के परिणामों ने। अब बारी हमारी हैं कि जिस तरह से गलत राह पर गए हुए इंसान को सही रास्‍ते पर लाया जाता हैं, उसी तरह कोसी नदी को उसकी राह पर कैसे लाया जाए।
इसके रास्‍ते को सुधारने के लिए हमारे प्रशासन ने बहुत से कदम उठाए हैं। क्‍या ये कदम उन लोगों को कुछ राहत की सॉंसे दे पायेंगे। हॉं ऐसा तो बिल्‍कुल भी नही होगा जब राहत शिवीरों का उदघाटन करने के लिए हमारे नेता लोगों से घंटों इंतजार ना करवाये। वे लोग तो पहले से ही इतने परेशान हैं और अभी तक उस सदमें से उभर भी नही पाये हैं। क्‍या यह राहत उनके दर्द को कम कर पाएगी। जिन्‍होने इस त्रासदी में अपना परिवार ही खो दिया हैं। क्‍या वो उन पलों को भूल पायेंगे जिन्‍होने उनकी जिंदगी तबाह कर दी हो। इस बर्बादी की जड़ पानी को हम अमृत की संज्ञा देते हैं।
लेकिन किसी ने सच ही कहा हैं कि किसी चीज की अति भी अच्‍छी नही होती। क्‍योंकि इस बर्बादी का कारण हैं कि आज के युग में प्रगति के चक्‍कर में मनुष्‍य ने पर्यावरण संतुलन को बिगाड कर रख दिया हैं। और इसका परिणाम इस त्रासदी के रूप में हमारे सामने हैं। लेकिन कम से कम अब तो हमे इस बर्बादी के बाद सुधर जाना चाहिए। अगर हमने ऐसा नही किया तो हमारे अंत को कोई रोक नही सकता।
सविता कुमारी
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार
चैम्पियंस ट्रॉफी का स्‍थगन
अगले माह से शुरू होने वाली चैम्पियंस ट्राफी का स्‍थगित हो जाना क्रिकेट प्रेमियों के लिए बुरा हुआ। जब से चैम्पियंस ट्राफी की बागडोर पाकिस्‍तान के हाथों में आई तभी से चैम्पियंस ट्राफी पर खतरे के बादल मंडराने लगे। चैम्पियंस ट्राफी का बहिष्‍कार करने पाली पहली टीम दक्षिण अ‍फ्रीका थी। जिसने अपनी राष्‍ट्रीय टीम को पाकिस्‍तान में खेलने की मंजूरी नही दी। इसके बाद आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैंड
और इंग्‍लैंड आदि देशों के क्रिकेट बोर्डों ने भी अपनी-अपनी टीमों को पाकिस्‍तान में खेलने से रोक दिया।

खेल के दृष्टिकोण से यह पाकिस्‍तान के साथ अच्‍छा नही हुआ। आस्‍ट्रेलिया की तीन सदस्‍यीय जॉंच कमेटी पाकिस्‍तान में सुरक्षा जॉंच के लिए आती हैं और जॉंच से संतुष्‍ट हो जाती हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद वो अपने बयान से मुकर जाती हैं। ऐसा नही हैं कि पाकिस्‍तान पहली बार किसी श्रंखला की मेजबानी कर रहा हैं। अभी हाल ही में पाकिस्‍तान ने जिम्‍बाबे व बांगला देश की टीमों की मेजबानी की थी। पाकिस्‍तान ऐशिया कप की भी सफल मेजबानी कर चुका हैं। यद्यपि भारत का पाकिस्‍तान को पूर्ण समर्थन प्राप्‍त था,लेकिन यह चैम्पियंस ट्राफी की मेजबानी के लिए नाकाफी था। चैम्पियंस ट्राफी के स्‍थगन से पाकिस्‍तान क्रिकेट र्बोड को जो नुकसान हुआ हैं उसकी भरपाई शायद ही कोई कर पाए।
यद्यपि पाकिस्‍तान में समय-समय पर आतंकी हमले व बम धमाके होते रहे हैं, फिर भी पाकिस्‍तान ने अपने देश में आई दूसरी टीमों को नुकसान नहीं पहुँचने दिया हैं। यह अलग बात हैं कि पाकिस्‍तान में स्‍थगित चैम्पियंस ट्राफी का अधिकतर देशों ने स्‍वागत किया हैं।
रवि
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

जाना चौदह दशकों के गवाह का

देश के सबसे बुजुर्ग व्‍यक्ति के निधन का समाचार गम के साथ खुशी भी लेकर आया। गम इस बात का, कि आजादी से पहले के 60-70 सालों के इतिहास का चश्‍मदीद गवाह हमारे बीच नही रहे। खुशी इस बात की,कि रोशनी खो चुकी ऑंखों, सुनना बंद कर चुके कानों और सहारे के लिए मोहताज हो चुके शरीर से उन्‍हे मुक्ति मिल गई।

राजस्‍थान के अलवर जिले के राजगढ़ में बीस मई 1870 को जन्‍में हबीब मियॉं ने जयपुर राज घरानों के बैंड-दल में नौकरी की और सन् 1938 में सेवानिवृत हुए। वे अपने परिवार की छ: पीढि़यों को देख चुके थे। सम्‍भवत: हबीब मियॉं पेंशन पाने वाले एकमात्र व्‍यक्ति थे, जिन्‍होने लगातार सत्‍तर वर्षों तक पेंशन सेवा का लाभ उठाया।

सन् 1905 में लिम्‍का बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्डस ने उन्‍हे विश्‍व के सबसे बुर्जुग व्‍यक्ति की श्रेणी में शामिल किया था। तब उनकी उम्र 136 वर्ष थी। अपनी राजस्‍थान यात्रा के दौरान भूतपूर्व राष्‍ट्रपति डॉ ए.पी.जे अब्‍दुल कलाम भी हबीब मियॉं से मिल चुके थे।

आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान जहॉं मानव को दीर्घ जीवी बनाने के लिए नई नई खोजों में लगे हुए हैं वही आधुनिक सभ्‍यता में युवाओं में पनपती हताशा, उन्‍हे जीवन के वास्‍तविक आनंद से दूर ले जाती हैं। और वे आत्‍महत्‍या से भी नही चूकते। ऐसे में जिंदगी को ज्‍यादा से ज्‍यादा जीने की हबीब मियॉं की जिजीविषवा हमे जीवन के संघर्षों को अपनाते हुए बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं।
अभिषेक चतुर्वेदी
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार
जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि-
हम दुनिया में क्‍यों आये
अपने साथ ऐसा क्‍या लायें
जिसके लिए घुट-घुट कर जीते हैं
दिन रात कडवा घूँट पीते हैं
क्‍या दुनिया में आना जरूरी हैं
अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,
बच्‍चे पैदा क्‍यों किये जाते हैं,
पैदा होते ही क्‍यों छोड दिये जाते हैं,
मॉं की गोद बच्‍चे को क्‍यों नहीं मिलती
ये बात उसे दिन रात क्‍यों खलती
क्‍या पैदा होना जरूरी हैं
अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,
हम सपने क्‍यों देखते हैं
सपनों से हमारा क्‍या रिश्‍ता हैं
जिन्‍हे देख आदमी अंदर ही अंदर पिसता हैं
क्‍या सपने देखना जरूरी हैं
अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,
इंसान-इंसान के पीछे क्‍यों पडा हैं
जिसे समझों अपना पही छुरा लिए खडा हैं
अपने पन की नौटंकी क्‍यों करता हैं इंसान
इंसानियत का कत्‍ल खुद करता हैं इंसान
क्‍या इंसानिसत जरूरी हैं
अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।

(इस सोच का अभी अंत नही हैं)
( क्रमश: )
जतिन
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार
बाढ़ का प्रकोप
हर वर्ष आने वाली बाढ, उत्तर भारत के लिए अभिशाप बन चुकी हैं। हर वर्ष इस बाढ से लाखों लोगों को बेघर होना पडता हैं। हजारों हैक्टेयर में फैली फसले नष्‍ट हो जाती हैं। बाढ से घिर हजारों लोगों और पशुओं की मौत अन्‍न और पेयजल के अभाव से हो जाती हैं।
बाढ प्रभावित राज्‍यों की स्थिती पर गौर करे तो पंजाब में सतलुज नदी के तटबंधों में पन्‍द्रह जगह दरार पड़ने के कारण सौ से अधिक गॉंव डूब गए। हजारों लोगों को विस्थापित होना पडा हैं। सरकारी तंत्र के नकोरपन के कारण,ग्रामीणों तक सही वक्‍त पर बॉंध के जलस्‍तर की सूचनाऍं नही पहुँच पाती जिस कारण जान माल की क्षति दर बढ़ जाती हैं।
अपनी विनाश लीला के कारण सुनामी और प्रलय का संबोधन पा चुकी बिहार की बाढ ने देश को झिंझोड कर रख दिया हैं। इस बाढ ने आठ जिलों के 417 गॉंवों की लगभग 40 लाख आबादी को बेघर कर,दान-दाने के लिए मोहताज कर दिया। पेयजल की किल्‍लत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं,कि लोग दूषित पानी को चादरों से छान कर पी रहे हैं। नावों और स्‍टीमरों की कमी के कारण बाढ से क्षोभित लोगों को सुरक्षित स्‍थानों तक ले जाने में दिक्‍कतें आ रही हैं।
सरकारी लापरवाही कहे या संसाधनों की कमी के कारण हजारों लोग तडप-तडप कर दम तोड देते हैं। यदि सरकार इस स्थिती में तकनीकी साजो़सामान की खरीदारी भी करती हैं, तो बाढ के लौटने से पहले आपूर्ति नही हो पाती हैं। उचित गुणवत्‍ता या रखरखाव के भाव में तकनीकी साजो़सामान इस लायक नही रहता कि अगली बाढ में इस्‍तेमाल किया जा सके। हेलिकाप्‍टरों द्वारा गिरायी जा रही खाघ एवं राहत-सामग्री बाढ से बेहाल लोगों के लिए उँट के मुँह में जीरा सिद्व हो रही हैं। दशकों से उत्‍तर-बिहार की जनता पर बाढ का कहर बरपा रही कोसी नदी इस वर्ष सभी सीमाऍं लांघ चुकी हैं। इसका प्रमुख कारण कोसी नदी द्वारा अपने मार्ग में किया गया बडा परिवर्तन(करीब 100 किलोमीटर हैं। अररिया,पूर्णिया,मधेपुरा,कटिहार और सुपौल आदि जिलों का लगभग 69300 भू-भाग बाढ की चपेट में हैं।
आज आवश्‍यकताहैं सरकार द्वारा अपनी कार्यप्रणाली के उचित मूल्‍यांकन की। आवश्‍यकताहैं नेताओं, राजनीतिक दलों और अफसरों द्वारा अपने स्‍वार्थों को त्‍यागने और मानवीय संवेदनाओं को समझने की। आवश्‍यकताहैं पूर्व में हुई भूलों से सबक लेकर समस्‍याओं से निपटने को आतुर रहने वाले कर्मठ योगियों की। तभी एक और कोसी को कहर बरपाने से रोका जा सकेगा।


अभिषेक चतुर्वेदी
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय: डूसू चुनाव 2008

एक ओर जहॉं देश के बडे़-बडे़ विश्विद्यालयों में एक अरसे से छात्र संघ चुनाव नही हुए हैं। वहीं देश के दो बडे केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय नियमित रूप से छात्र संघ चुनाव करवा रहे हैं। ये दोनों विश्‍वविद्यालय हैं डीयू तथा जेएनयू। आने वाले महीने में डूसू चुनाव होने वाले हैं। डूसू चुनाव को देखते हुए पिछले वर्ष सर्वोच्‍च न्यायालय ने लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू किया। सिफारिश में चुनाव की सीमा पॉंच हजार रूपये निर्धारित की गई। चुनाव खर्च मात्र पॉंच हजार तक सीमित किए जाने को लेकर छात्र संघों में जबरदस्‍त असंतोष व्‍याप्‍त हैं।

वैसे डूसू चुनाव का इतिहास देखा जाए तो मुख्‍य मुकाबला एनएसयुआई तथा एबीवीपी के बीच रहा हैं। कुछ दल जैसे एसएफआई एनएसओआई तथा एआईएसए संघर्ष को त्रिकोणात्‍मक बनाने में लगे हैं। परंतु पिछले वर्षो की तरह इस वर्ष भी मुख्‍य मुकाबला एनएसयुआई और एबीवीपी के बीच नज़र आ रहा हैं।

एक ओर जहॉं एनएसयुआई एवं एबीवीपी ने चुनावी पर्चो पर हजारों रूपये खर्च किए हैं। वही वामवपंथी छात्र संगठन जैसे एसएफआई और एआईएसए ने लिंगदोह समिती की सिफरि‍शों को ध्‍यान में रखते हुए कम से कम धन खर्च किया हैं। इब यह भी देखना लाजमी होगा कि डूसू चुनाव लिंगदोह समिती की सिफारिशों की किस हद तक अवहेलना करता हैं।

डूसू चुनाव में खर्च की सीमा को तय करने के लिए विश्‍वविद्याल को आदर्श प्रारूप बनाना चाहिए,जिससे छात्रसंघ में व्‍याप्‍त असंतोष को दूर किया जा सके। साथ ही चुनाव के दौरान कैपंस में कडी निगरानी रखनी चाहिए जिससे कि कोई हिंसक वारदात न हो। अगर छात्रसंघ एवं विश्‍वविद्यालय प्रशासन इस दिशा में पहल करे तो एक आदर्श लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम की जा सकती हैं।
निरंजन कुमार
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार
भार‍तीय लोकतंत्र
गत अनेक वर्षों में भारत की अच्‍छाइयों पर अने‍क सर्वे हुए हैं। परंतु आजादी के साठ वर्षों के बाद भी भारत की स्थिति दयनीय हैं। पिछले इन वर्षों में भारत में राजनीतिक सत्‍ता का दबदबा कायम हैं। परंतु क्‍या इस निरंतरता में आम आदमी की स्थिती भी मजबूत एवं महत्‍वपूर्ण हैं। भारत की संसद में सरकार द्वारा दस बात को स्‍वीकरा गया हैं कि भारत में 74-77 प्रतिशत जनता का दैनिक खर्च मात्र बीस रूपये ही हैं।
यह एक त्रासदी ही हैं कि जैसे भारतीय व्‍यवस्‍था अनुभवी होती जा रही हैं वैसे-वैसे वह आम जनता से कटती जा रही हैं। हर स्‍तर के चुनावों में मोलभाव हो रहा हैं। लोकसभा में नोट के बदले वोट कांड इसी का एक जीवंत उदाहरण हैं। भारत में आतंकवाद एक जटिल और स्‍थायी समस्‍या बन गया हैं, परंतु भारत सरकार कोई भी ठोस कदम नही उठा पा रही हैं। भारत का कोई भी शहर सुरक्षित नही हैं। अगर भारतीय नागरिक जिम्मेदार हो जाएं तो संसद में कोई भी आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति नही पहुँच पाएगा।
बबली
बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

एक पत्रिका

पारिजात:दीवार से इंटरनेट के द्वार तक
दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई कररहे विद्यार्थियों को यह सुविधा कम ही मिल पाती है कि वे अपनी अभिव्‍यक्ति के ठीक मुकाम तलाश सकें। ऐसे इस पत्रिका का महत्‍त्‍व बढ़ जाता है।
संपादकीय
पारिजात जिसका अर्थ है कल्‍पवृक्ष। जिस प्रकार कल्‍पवृक्ष स्‍वर्ग के देवताओं को अनेक मीठे और रसीले फल देता है। उसी प्रकार हमारी यह पत्रिका हमारे स्‍वर्ग रूपी महाविद्यालय के विद्यार्थियों को ज्ञान रूपी फल देगा।
यह पत्रिका बी़.ए.(आनर्स) हिन्‍दी पत्रकारिता एवं जनसंचार प्रथम वर्ष के विद्याथिर्यों का उद्यम है। इस पत्रिका के माध्‍यम से आपको अनेक रोचक एवं तथ्‍यपूर्ण जानकारी मिलेंगी। आइए जानते है क्‍या है हमारे इस पारिजात के प्रथम अंक में।जैसा कि आप जानते है कि पूरा देश स्‍वतंत्रता कि तैयारी में डूबा हुआ है।ऐसे में हम कैसे पीछे रह सकते है।‍ हमारी सहपाठी सुगंधा के लेख द्वारा आपको स्‍वतंत्रता दिवस के बारे में अनेक जानकारियॉं दी जाएगी। स्‍वतंत्रता दिवस की तैयारी के बीच हम रक्षाबंधन के पर्व को कैसे भूल सकते हैं। इस पर्व की महत्‍ता के बारे में आप जानेंगें सविता के लेख रक्षाबंधन द्वारा।ये तो हुई पर्वो की बात अब बारी है कुछ राष्‍ट्रीय और अंतराष्‍ट्रीय मुद्दो की जैसे कि क्रिकेट का बदलता स्‍वरूप, आतंकवाद, बाढ और सूखा, क्षेत्रवाद, जगमगाते शहरो में सिमटता युवाओ का भविष्‍य, रेडियो और दूरदर्शन, बाल श्रम जिसके बारे में आप जानेंगे क्रमश: रवि‍, अभिषेक, रोहित, निरंजन, अमर, बबली और ललित के लेखों द्वारा।हमें पूरी उम्‍मीद हैं कि आपको हमारी यह पहल अवश्‍य पसंद आएगी। फिर भी यदि‍ आपके कुछ सुझाव या शिकायतें हैं, तो आप हमे अवश्‍य सूचित करें।आपके सूझाव व शिकायतें आमंत्रित हैं।
तो तैयार हो जाइए हमारे ज्ञान के समुद्र में गोते लगाने के लिए।
फिलहाल तो यह वादा है कि पत्रिका आप तक नियमित पहुँचे।
'इसकी संपादिका हैं दीपिका शर्मा जो फिलहाल पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं। देहरादून से आयी दीपिका में काम के प्रति लगन तो है ही सीखने की जिज्ञासा भी ।पत्रकार बनने की दिशा में अग्रसर दीपिका की यह पहली कोशिश है।'
पन्‍द्रह अगस्‍त सुगंधा
पन्‍द्रह अगस्‍त 1947 को भारत अंग्रेजो के शासन से मु्क्‍त हुआ था और इस में कितने ही वीर शहीदों को आजादी लेने के लिए शहीद होना पडा़। इस आंदोलन में भारत के बड़े बुढे महिलाए बच्‍चे सभी कूद पडे़। कितनी ही महिलाएं विधवा हुई कितने ही बच्‍चे अनाथ हुए। कितनों के घर उजड़ गए। बडी मशक्‍कत के बाद हमे आजादी मिल पाई।पन्‍द्रह अगस्‍त 1947 के बाद इस दिन सरकारी अवकाश रहता है। स्‍कूल कालेजो में यह दिन चौदह अगस्त को ही मना लिया जाता हैं। इस दिन सभी कार्यालय बंद रहते हैं। इस दिन भारत के प्रधानमंत्री लाल किले पर तिरंगा फहराते हैं और देश के नाम बधाई संदेश देते हैं।यह दिन सभी भारतीयो के ज़हन में बसा हुआ हैं कि किस प्र‍कार भारत को आज़ादी मिली। लेकिन यह दिन एक दुखद समाचार लेकर भी आया, जब भारत को दो टुकडो में बॉंट दिया गया। एक मुस्‍लिम देश बना पाकिस्‍तान और दूसरा हिन्‍दू देश बना हिन्‍दूस्‍तान। कितने ही परिवार एक दूसरे से बिछड गए। यह दिन खुशी के साथ गम़ भी लेकर आया।पन्‍द्रह अगस्‍त की याद ताजा करने के लिए बडे बुजुर्ग अपने बच्‍चो को इस दिन की कहानियॉं सुनाते हैं। किस तरह भारत के जवानों ने लहु बहाकर हमें आजा़दी दिलवाई और अंग्रेजो को मार भगाया था। करीब सौ सालो तक अंग्रेजो ने भारत पर शासन किया और जाते जाते भारत को कंगाल कर दिया। पन्‍द्रह अगस्‍त की यादें अभी भी हमारे ज़हन में बसी हुई हैं और जिनको याद करके हमारे आसूँ बह जाते हैं।
प्‍यारका बंधन:रक्षाबंधन.................................................
सविता कुमारी पत्रकारिताप्रथमवर्ष
बंधन हमेशा बुरा नही होता। कुछ बंधन एक खूबसूरत एहसास देते हैं जैसे प्‍यार का बंधन। इसकी डोर में हर कोई बंधा चला जाता हैं। चाहे वह दोस्‍ती का बंधन हो,बहन भाई का हो,माँ बाप का हो,पति पत्‍नी का या फिर आत्‍मा परमात्‍मा का;पवित्र बंधन हमे जीने की कला सिखलाता हैं। जो इस बंधन को मुश्‍किल की घडी़ में भी निभाता हो वह फरिश्‍ता या देवता बन जाता हैं। ऋषि मुनियों ने और धर्म संस्‍थापको ने मनुष्‍य को बंधन में बांधे रखने के लिए प्राय:जितने भी त्‍यौहार और उत्‍सव बनाये हैं,उनके पीछे कुछ गूढ अर्थ हैं। ब्राह्मण चिरकाल से जन कल्‍याण की भावना से अपने यजमानो को सूत या मौली बांधता आया हैं। ठीक इसी उद्देश्‍य को बहन भी शुभ कामना की राखीरक्षासूत्रमौली या रक्षाकवच भाई को ही नही बल्कि समस्‍त परिवार के सदस्यो को बांधती हैं।भृकुटि के मध्‍य जहॉं आत्‍मा का निवास माना जाता हैं वहाँ चावल केसर का टीका लगाती हैं,ताकि वह अपने स्‍वधर्म अर्थात पवित्रता की रक्षा कर सके। रक्षाबंधन यानी बलवान द्वारा निर्बल की रक्षा का बंधन। बहन भाई को इसलिए राखी का सूत्र बांधती हैं कि यदि वो किसी मुसीबत में पडे तो भाई उसकी रक्षा करे। उसके अस्तित्‍व और सतीत्‍व की रक्षा करे। बहन अपने अंतर्मन से स्‍नेह से अपनी कामनाओ से अपने भाई के लिए भगवान से प्राथर्ना करती हैं।क्रिकेट का बदलता स्‍वरूप............................................- रवि
हिं पत्रकारिता और जनसंचार,दी
प्रथम वर्ष

क्रिकेट,फुटबॉल के बाद विश्‍व का सवार्धिक लोकप्रिय खेल हैं। क्रिकेट का जन्‍म इंग्लैंड में हुआ था और तब से यह विश्‍व के विभिन्‍न देशों तक पहुँच गया। यद्यपि हमारे देश का राष्‍ट्रीय खेल हॉकी हैं परन्‍तु क्रिकेट की लोकप्रियता के सामने हॉकी नतमस्‍तक हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि वर्ष 2007 मे आई मशहुर फिल्‍म चक दे इंडिया़..........हॉकी का गाना था। लेकिन वह भी क्रिकेट ने छीन‍ लिया।1870 के दशक से 1970 के दशक तक लगभग 100 वर्षो तक टेस्‍ट क्रिकेट सुचारू रूप से चला। उस समय टैस्‍ट मैच 6 दिनों का होता था। ऐसे में कुछ लोगों को यह लगा कि क्रिकेट एक रूचिहीन खेल हैं। और आई सी सी से परिवर्तन की मॉंग की। आई सी सी ने टैस्‍ट मैच को 6 दिन से घटाकर 5 दिन का कर दिया। सन् 1963 में एक दिवसीय मैचों की शुरूआत की गई। आरंभ में एक दिव‍सीय मैच 60 ओवरो का किया गया, पर आई सी सी ने इसमे परिवर्तन कर इसे 50 ओवरो का कर दिया। 50 ओवरो का मैच सुचारू रूप से चलने लगा।फिर क्रिकेट में एक नया प्रारूप आया 20-20 क्रिकेट। यद्यपि 20-20 क्रिकेट का प्रथम अंतराष्‍ट्रीय मैच 18 फरवरी 2006 को आस्‍ट्रेलिया और न्‍यूजीलैंड के बीच खेला गया। जिसमे जोश जुनून और रोमांच सब कुछ था। वर्ष 2007 में दक्षिण अफ्रिका में आयोजित 20-20 विश्‍वकप ने इस खेल को नई उचाईयॉं दी। आई पी एल ने भी 20-20 क्रिकेट का आयोजन करके इस खेल को लोकप्रिय बनाया।यद्यपि 20-20 क्रिकेट का विकास बडी तीव्रता से हो रहा हैं, परन्‍तु 20-20 क्रिकेट टेस्‍ट क्रिकेट के लिए खतरा हैं। और टेस्‍ट क्रिकेट को अभी से समाप्‍त करने की योजना बनाई जा रही हैं। हम टेस्‍ट क्रिकेट को भूल नहीं सकते,टेस्‍ट क्रिकेट ही असली क्रिकेट हैं।
आतंक: सुरक्षा, समाधान या कुछ और.............................
- अभिषेक चतुर्वेदी
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार, प्रथम वर्ष

विगत दिनों बंगलुरू और अहमदाबाद में हुए खुफिया और सुरक्षा तंत्र की विफलता को जनता के सामने ला कर रख दिया हैं। बीते कुछ वर्षो में हुए आतंकी हमलों के बाद
की स्थिति पर विचार किया जाए, तो एक बात जो हर आतंकी घटना के बाद समान रही है। बहुत ही माननीय ग़ृहमंत्रीजी द्वारा रक्षा अधिकारियो की आपत बैठक बुलाना और विभिन्न खुफिया और सुरक्षा एजेन्सियों की एक समन्वय के गटन के आश्वासन देना। आतंकवाद जैसी समस्या से निपटने के प्रयासो के प्रति सरकरी तंत्र का उदासीन रवैया,आतंकी हमलों के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता को जगजाहिर करता है। 2007 में हुए मुम्बई विस्फोटों, इस वर्ष जयपुर मे हुए विस्फोटों और मात्र 30 घण्टो के अन्तराल पर हुए बंगलुरु और अहमदाबाद धमाको की बात की जाए तो सैकड़ो निर्दोष लोग अपनी जान गवां चुके है। हजारो लोग विकलांग हो चुके है। देश का भविष्य कहे जाने वाले सैकड़ो बच्चे या तो अनाथ हो चुके या अपना बचपन रिश्तेदारो के रहमो करम पर जीने को मजबूर है। पिछले तीन दशको से ये देश आतंकवाद के विभिषिका को झेल रहा है। शायद झेलते रहने की आदत ने हमारी संवेदना को कुंद कर दिया है। देश में हमले हुए नही कि हम "आतंक विरोधी तंत्र" या पुलिस-आधुनिकीकरण की बात करने लग जाते है। कुछ दिन बीतते नही कि ये सारी कवायदें मात्र एक साधारण विचार के रुप में मस्तिष्क के किसी हिस्से में सुप्तावस्था को धारण कर लेती है। शायद इस इंतजार में कि एक धमाका इस अवस्था से विचारो को मुक्ति दिलाएं और ये विचार पुन: अपनी महत्ता का आभास किसी मंत्री या वक्ता के भाषण का अंस बन सकें।हर आतंकी हमले के बाद केन्द्र के साथ साथ राज्य सरकारें भा आतंक- पीड़ितों के लिए करोड़ो रुपये की सहायता राशि जारी करती है। ऐस लगता है सरकारो ने आतंकी हमलो को अपनी नियति मान अप्रत्यक्ष रुप से आतंक पीड़ित राहत कोष का गठन आपदा प्रबंधन कोष की तर्ज पर कर लिया है। जबकि पुलिस आधुनिकीकरण धन की अनुपलब्धता के कारण बाधित होता रहा है। कई बार विस्फोटों के बाद साक्ष्य न मिलने और चौतर फा दबाव के कारण पुलिस निर्दोष व्यक्तियों को आरोपी बना कर गिरफ्तार कर लेती है। असलियत सामने आने पर बेशक दोषियों को बर्खास्त कर पुलिस प्रशासन द्वारा अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर ली जाती है। ऐसी घटनाओं के कारण पुलिस से जनता का मोहभंग हो जाता है और पुलिस की अनेक कार्यवाहियाँ(आतंकवाद या अराजकता के विरुद्ध) संदेहास्पद मान ली जाती है।

आवश्यकता इस बात की है कि आतंकवाद की जड़ों पर कठोर प्रहार कर आतंकवाद से त्रस्त जनता को भयमुक्त वातावरण उपलब्ध कराया जाए और सरकारी तन्त्र के प्रति व्याप्त अविश्वास किया जाए।


बाढ़ और सूखा..................................................................
-रोहितकुमार पाठक
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार, प्रथम वर्ष

हमारे देश में जब जब जहाँ जहाँ सूखा पड़ा है, वही हर बार सूखा पड़ता है। जहाँ एक बार बाढ़ आती है वहीं बार बार बाढ़ आती है। जो इलाका कभी चक्रवात से तबाह हुआ होता है, उसी इलाके को महाचक्रवात की भी मार झेलनी पड़ती है। बार बार भुखमरी फैलती है और बार बार उससे निपटने के लिए सरकारी अनुदानों पर अभियान छेड़ा जाता है। यह प्रक्रिया पचास वर्षो से जारी है। राहत कार्यो के नाम पर खर्च होनेवाली अधिकांश रकम नेताओ,नौकरशाहो,ठेकेदारों और इंजिनयरो की जेब में चली जाती हैं। नतीजतन सूखा और बाढ का सिलसिला कभी टूटता नहीं। अतीत में किए गए सारे उपाय फेल हो जाते हैं। शायद ये उपाय किए ही जाते हैं फेल होने के लिए। यह सही है कि खाघान उत्‍पादन के मामले में हमारा देश इतना सक्षम हो चुका हैं कि अब सूखा या बाढ अकाल का रूप नहीं ले पाता।
1942-43 के बंगाल के अकाल की तरह तीन हजार लोग काल के मुँह में नहीं समाते। इथोपिया और सोमालिया जैसी स्थिती हमारे देश में नही होती,लेकिन लोग मरते हैं। कभी अकाल तो कभी पानी के तुफानी बहाव से। उत्‍तर प्रदेश, गुजरात,राजस्‍थान,आंध्र प्रदेश और अन्‍य राज्‍यो के दूरदराज़ के गॉंवो में ही नहीं पानी का संकट शहर में भी हैं। राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से लेकर इस संकट की गूँज देश के अनेक राज्‍यो में भी सुनी जा सकती हैं।
जिस देश में सैकडो नदियाँ बहती हो हजारो लाखो की तादाद में तालाब हो, और जहॉं औसतन 1100 मी.मी. बारिश होती हो उस देश में पानी के अकाल की बात पर विशवास नहीं होता। लेकिन हकीकत यही हैं। हमारे यहॉं पानी का अकाल हैं, कही ज्‍यादा तो कही कम।
क्षेत्रवाद................................................................... –निरंजनहिंदी पत्रकारिता और जनसंचार, प्रथम वर्ष
यह एक ऐसी सामाजिक एवं सास्‍क्रतिक व्‍यवस्‍था हैं जो एक खास क्षेत्र के लोगो के द्वारा उस खास क्षेत्र के लिए विकसित की गई हो, जिसमे दूसरे क्षेत्रो लोगो अथवा उनकी संस्‍कती का समावेश वर्जित हो। संभवत: ऐसी व्‍यवस्‍था को क्षेत्रवाद की संज्ञा दी जा सकती हैं।एतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा प्रतित होता हैं कि क्षेत्रवाद का जन्‍म सामंतवादी व्‍यवस्‍था से हुआ हैं। पूर्व में हमारी सामाजिक व्‍यवस्‍था छोटे छोटे क्षेत्रो में बँटी हुई हैं। इन क्षेत्रो में आपसी प्रतिस्‍पर्धा बनी रहती हैं। शायद यही क्षेत्रवाद के उदय का कारण रहा हो। हमारा स्‍वतंत्रता संग्राम भी इसी की भेंट चढ़ गया। इसका कारण भी क्षेत्रात्‍मक असंगठन था। समय समय पर हमारे राजनीतीज्ञों ने भी इसका गलत इस्‍तेमाल किया।हाल ही में राज ठाकरे और तेजेन्‍द्र खन्‍ना द्वारा किया गया पहल इसका ताजा उदाहरण हैं।आज जरूरत हैं कि क्षेत्रवाद को बढावा देने वालों के प्रति कडी मुहिम चलाई जाए। हमारी संसद को चाहिए कि वह इस दिशा में कठोर कदम उठाए,जिससे हमारे राष्‍ट्र की एकता एवं सम्‍प्रभुता बनी रहे।जमगाते शहरों में सिमटता युवाओ का भविष्‍य..................-अमर भारद्वाज
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार, प्रथम वर्ष
वर्तमान में बडे एवं जगमगाते शहरों को जनसंख्‍या विस्‍फोट बेरोजगारी एवं निर्धनता जैसी समस्‍याओं का सामना करना पड रहा हैं। जिन शहरों में इन समस्‍याअयों को अधिकतर देखा जाता सकता हैं उनमे मुख्‍य हैं दिल्‍ली मुम्‍बई चैनई गाजियाबाद और बंगलुरू। आखिर इन समस्‍याओ का मुख्‍य कारण क्‍या हैं क्‍या कभी हमने इस तरफ अपना ध्‍यान केन्द्रित किया हैं,तो आइए नजर डालते हैं इसके कुछ कारणो पर;1-युवाओं के भविष्‍य के सुनहरे सपनों का रासता इन्‍ही शहरो में मिलता हैं।2-बडे-बडे उद्योग धंधो की कम्‍पनी का शहरो में कंन्द्रयकरण।3-शहरो की विकास दर में वृद्धि।4-अनेक शिक्षध संस्‍थानो व व्‍यापारिक केन्‍द्रो का इन शहरो में स्‍थापित होना।ये कुछ प्रमुख कारण हैं, जिनसे इन बडे शहरो की तरफ सबका रूझान हैं। इससे अन शहरो में उत्‍पन्‍न होने वाली समस्‍याए निम्‍नलिखित हैं;1-इन शहरो का प्राकृकतक सौन्‍दर्य खोता जा रहा हैं।2-निरंतर बढती जनसंख्‍या एक प्रमुख समस्‍या हैं
3-यहॉं के मूल निवासी व बाहरी व्‍यक्तियो के लिए घर एक सपना पूरा होने में बहुत समय लगता हैं।रेडियो और दूरदर्शन:कुछ तथ्‍य........................................
-बबली
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,
प्रथम वर्ष
आकाशवाणी:- इसने 3 जून 1936 से कार्य प्रारंभ किया। अक्‍टुबर 1957 में विविध भारती कार्यक्रम शुरू किया गया। आज आकाशवाणी संसार का एक प्रमुख प्रसारण संगठन बन गया हैं। जिसमें 213 प्रसारण केन्‍द्र और 240 ट्रांसमीटर हैं। इसमे 147 मीडियम वेव 55 शार्ट वेव और 138 एफ एम ट्रांसमीटर हैं। इसके माध्‍यम से देश के 91.37 प्रतिशत भू-भाग में 99.13 प्रतिशत लोगो तक आकाशवाणी के प्रसारण पहुँचते हैं। नेशनल चैनल 18 मई 1988 को प्रारंभ किया गया।रेडियो पेजिंग:- आकाशवाणी ने 14 जनवरी 1995 से यह सेवा आरंभ की। इस सेवा के माधयम से उन लोगो को संदेश पहुँचाया जाने लगा जो उस वक्‍त कहीं मार्ग में हो। आकाशवाणी ऐशिया का ऐसा पहला संस्‍थान हैं जिसने इस तकनीक का प्रयोग किया।दूरदर्शन:- 1 अप्रैल 1976 से दूरदर्शन को आकाशवाणी से प्रथक कर एक महानिदेशक के नियंत्रण में सौंप दिया गया। पहला दूरदर्शन स्‍टेशन दिल्‍ली में 15 सितम्‍बर 1959 को स्‍थापित किया गया। 15 अगस्‍त 1953 को दूरदर्शन के पॉंच नए चैनल शुरू किए गए। दूरदर्शन का अंतराष्‍ट्रीय चैनल 14 मार्च 1995 को शुरू हुआ। दूरदर्शन सी एन एन न्‍यूज 30 जून 1995 को प्रारंभ हुआ। दूरदर्शन ने 18 मार्च को अपना स्‍पोटर्स चैनल शुरू किया।देश की 87 प्रतिश्‍त से अधिक जनता 1042 ट्रांसमीटरो की मदद से दूरदर्शन के कार्यक्रम देख सकती हैं।
अब इन बच्‍चों ने क्‍या लिखा है इसकी गुणवत्‍ता पर तो मैं टिप्‍पणी नहीं करूँगा पर इसे आप एक प्रयोग भर मान सकते हैं। यदि चल निकला तो जारी रहेगा नहीं तो ठप।ऐसी ही हालतहै। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे का मंच बनाना ही मूल उद्देश्‍य है हमारा।
Posted by NIRANJAN